मनुज नहीं लाया है
अपना सुख उसने अपने
भुजबल से ही पाया है
प्रकृति नहीं डरकर झुकती है
कभी भाग्य के बल से
सदा हारती वह मनुष्य के
उद्यम से, श्रमजल से
एक मनुष्य संचित करता है
अर्थ पाप के बल से
और भोगता उसे दूसरा
भाग्यवाद के छल से
पूज्यनीय को पूज्य मानने
में जो बाधाक्रम है
वही मनुज का अहंकार है
वही मनुज का भ्रम है
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